पूस की रात
पूस की रात
पूस की रात है।
कंपकंपाती ठंड की सौगात है।
मचान पर हल्कू लेटा है,
और जाड़े से बचने के लिए,
चादर से अपने आप को लपेटा है।
नीचे जबरा ने लगती ठंड के कारण,
अपने शरीर को समेटा है।
दोनों को नींद नहीं आ रही है।
ठंड है कि बढ़ती जा रही है।
चिलम भी साथ नहीं देती है।
जबरा की कू कू आवाज आती रहती है
हल्कू जबरा को अपने पास सुला लेता है।
हारकर पत्तियों के ढेर में,
हल्कू आग सुलगा लेता है।
दोनों आसपास बैठ जाते हैं।
थोड़ी देर में ही हल्कू,
गहरी नींद में सो जाता है।
जबरा नील गायों को खेत से भगाने,
भौंक कर वफादारी निभाता है।
सबेरे मुन्नी जगाती है।
खेतों के पूरे नष्ट होने की बात बताती है।
मुन्नी और हल्कू खेत देखने जाते हैं।
जबरा की मौत से दुखी हो जाते है।
पर हल्कू खुश है इस बात पर ,
कि खेत नहीं रहे जागना होगा न रात भर।
अब हम मजदूरी करेंगे ।
खुद अपने मालिक बनेंगे।
पैसा मांगने नहीं आएगा कोई सहना,
नहीं किसी की गुलामी, न ठंड सहना।
