पुरवा
पुरवा
आज सुबह ये जो पुरवा आई है
कुछ उदास-उदास सी है
इस पुरवा से भी नहीं छिपी है
चारो और फैली हुई तन्हाई।
अब ये पुरवा
न जान सकेगी
भेद तेरी उन मुस्कराहटों का
जिनसे इस घर का कोना-कोना
आबाद था।
अब ये पुरवा
न उड़ा सकेगी
तेरे माथे पर पड़ी उस लट को
जिसे तुम कभी मुस्कराते हुए
अपने होटों की फूँक से
कभी-कभी
ऐसे ही उड़ाती रहती थी।
अब ये पुरवा न बिखेर सकेगी
उन अधलिखे पन्नो को
जिनपे तुम न जाने क्या-क्या
लिखती रहती थी।
आज सुबह ये जो पुरवा आई है।
कुछ उदास-उदास सी है
क्या इसे भी पता है कि
तुम जा चुके हो
फिर से न लौट के आने के लिए?

