समेट लूँ…
समेट लूँ…
सोचती हूँ बाहें फैला के समेट लूँ अपने कायनात में
तुम्हारी लम्बी उड़ान को
तुम्हारी खुली हुई सोच को
तुम्हारे रंग-बिरंगे ख्वाबों को
तुम्हारे उन्मुक्त विचारों को
तुम्हारे मोहब्बत के बेपनाह जुनून को
लेकिन क्यूँ मैं खड़ी रह जाती हूँ
छोड़ देती हूँ तुम्हें उड़ने को ऊँचे आकाश में
पा लो तुम अपने ख़्वाबों को
जी लो अपने खुले विचारों को
दूँ सदाएँ या करूँ इंतजार हमेशा की तरह
क्यूँकि मुझे तो पता है, आखिर में
तुम्हारी बेपनाह मोहब्बत के जुनून की बारिश में
सब घुल जाएगा और बिना कुछ समेटे
मेरी कायनात में मुझे सब मिल जाएगा
जैसे की वो कभी कहीं गया ही नहीं ..!!!

