तुम और मैं…
तुम और मैं…
तुम बरसाती नदी के जैसे बहते हो
मैं एक पत्थर के माफ़िक़ खड़ी रहती हूँ
तपती धूप और गरमी में जब तन बदन जलने लगता है
तुम्हारे पानी के थपेड़ों से मिलती हूँ मैं
टकराते हो मुझसे और भिगाते हो मुझे
सुख की अजीब अनुभूति से परिचय कराते हो मुझे !!
मैं चाहकर भी बह नहीं सकती तुम्हारी तरह
क्यूँकि एक को तो रुकना है और जमे रहना है
मैंने ना रोका है तुम्हें ना रोकूँगी कभी
तुम निकल जायों आगे लेकिन भले दुनिया समझती रहे के
बरसाती नदी का रुख़ नहीं बदलता
लेकिन मुझे पता है तुम आयोगे फिर से मेरे ही पास
मैं करूँगी इंतेज़ार यहीं, खड़ी रहूँगी पत्थर के माफ़िक़
तुम आना अपना रुख़ बदलकर, अपना सफ़र तय करके
और छू जाना फिर से मुझे
भीगो देना मुझे
और मैं चुपचाप खड़ी होकर फिर से
तुम्हें जाती देखती रहूँगी !!