पुजारन बनना चाहती हूँ
पुजारन बनना चाहती हूँ
मैं मीरा बनकर कान्हा सी
उसे पूजती रही और
वो मुझे तन्हाई देकर
इस निष्ठुर दुनियां में
प्याला भरा विष,
विषपान करने को छोड़ गया
स्वप्नों की दुनियां दिखाकर उसने,
अंधेरों व पथरीली राहों पर
न जाने क्यों मोड़ गया
मेरी उम्मीदों पर जितना
मैं सोची थी उससे कही
दुगुना वो उसपर खरा उतर गया
कभी अपने करियर तो कभी
उम्र का तो कभी समाज का
तो कभी बूढ़ी माँ के ख्वाहिशों का
वो अनगिनत बातें बताकर
मीठी चाशनी का घोल घोलकर
बड़े ही आसानी वो मुकर गया
और मैं उसकी बातों में
छली गई ठगी गई
कई दफ़ा, उसका कारण
शायद वो नही था
मैं ही थी, मैं ही स्वयं
उसे देकर दर्जा सबसे ऊपर का
स्वयं पर ही ढाती रही ढेरों जफ़ा
फिर भी मैं उफ़्फ़
नहीं करना चाहती थी
उसे पूज कर उसे प्रेम कर
उसमें स्वयं को निहित
करना चाहती थी
मैं, मैं नहीं हम
होकर रहना चाहती थी
राधा नहीं रुक्मिणी बनने की
लालसा को लेकर आगे बढ़ना चाहती थी
किन्तु अब शायद कुछ भी
हासिल नहीं हो सकता तो
मैं केवल, मीरा बनकर जीवन भर
भज कर तुम्हें।
तुममे ही रम जाना चाहती हूँ
विष पीकर भी प्रेम में तेरे
सात जन्मों तक तेरे ही नाम से ही
जुड़ कर रह जाना चाहती हूँ
प्रेयसी न सही तुम्हारी पुजारन थी
ऐसा ही जग को जताना चाहती हूँ।