फ़साने
फ़साने
मैं जब - जब कुछ
लिखने बैठती हूँ
तब तुम्हारी वो स्मृतियाँ
मेरे आस - पास मंडराने लगती है।
देह की समस्त आँतें व हड्डियां
सब कुड़मुड़ा कर ,अपनी ओर
खींचकर कुछ भी करने से
मना ही कर जाती है
कुचाले भरना मन का इधर -उधर
निगाहें दौड़ाकर तीव्र गति की रफ़्तार से
राह टाह लेकर पुनः आकर स्थिर हो जाती है
फिर अहसास की अगन में डूबकर मग्न हो जाती है
सचमुच वो बड़े ही सहज और सुकूँ के पल थे
उन दिनों के
तुम्हारा आकर चुपके से आलिंगन करना
वो गुदगुदाते पल जो उमड़ आते है बेवक़्त
पर उन्हें चेहरे पर खुशी बनाकर नही ला पाती
जब सबके मध्य रहती हूँ तब, मगर मेरा अंतर्मन
उछलकर हिचकोले लेते हुए बोल पड़ता है।
"न मिट सकेंगे ये फ़साने"
उन दिनों के हसीन लम्हों को समेटकर
अपने जहन में रखना चाहती हूँ
क्योंकि मैं इन्ही के सहारे बार बार जी उठती हूँ
ये जो मुस्कुराहटें है मेरे चेहरे पर
फिर से कुसुम भाँति खिल आती है।