परवाज़
परवाज़


अपने डैनों के आँचल में
छिपाकर सींचा था जीवन जिसका
ऋतुओं की विषमताएं
अपने परों से थामी थी
पहुंचने ना दी थी उस तक
कठिनाइयां जीवन की
स्नेह की ऊष्मा से
हर पीड़ा को पिघलाया था
बाँधा था अपने ही पंखों की कैद में
सम्भालने को तमाम मुश्किलों से
अपनी चोंच में चुग चुग कर दाना
उस चिरैया ने नन्हे पंछी को पाला था
धीरे धीरे से उसने पंख उसके भी खोले थे
छोटी छोटी सी उड़ाने सिखाई हर दिन
और फिर एक दिन
उस चिरैया ने देकर पंख उस नन्हे बालक को
कहा
जा,
अपनी परवाज़ों को बढ़ा और
छू ले अपना आसमां
नन्हे पंखों की बढ़ती परवाज़ों के साथ ही
किसी कोने में कुछ बूंदें छिपी थीं