प्रतीक्षा...
प्रतीक्षा...
हृदय के चित्रपट में बसी है तस्वीर
और नीर से भरे दो नयनों के तीर हैं।
तीज के त्योहार में भी निज शशि से परे हैं
सब श्रृंगार भी तो बन गए पीर हैं।
बाल को संभालती हैं, दे रहीं हैं धीर किंतु
हिय उनके भी आज बाल से अधीर हैं।
वीर का भी सामना है समर में विशिख से
प्रेयसी को भी तो भेदे सुधियों के तीर हैं।
किताबों से, खिताबों से, लिबासों से, सौ यादों से
किए बसेरों के सारे कोने कोने रंगीन हैं।
सूर्य सा चिरायु रहे उसका भी सूर्य बस
निशि दिन रहती ये प्रार्थना में लीन हैं।
सात जन्मों के वादे निभ पाएंगे कि नहीं
लौट आने वाले उस वादे के अधीन हैं ।
वीर की "प्रतीक्षा" कर ऐसी हैं विकल आज
वारि से विहीन जैसे तड़फतीं मीन हैं ।
