प्रति चेहरा
प्रति चेहरा
प्रति पदार्थ की
बैज्ञानिक अवधारणा की तरह
मनुष्य का चेहरा भी
जितना दिखता है
उतना ही अदृश्य कहीं और
होता है अस्तित्व में।
कभी कभी ठीक ठीक वैसा ही
जैसा कि दिखता है
और कभी कभी वैसा
जैसा दिखना चाहिये।
चेहरे पे चेहरे
या नकाब लगाये चेहरों से
धोखे के मुहावरे
एक चौराहे पर खड़े है
मूर्तिवत
पर अगर ये चलें
मनुष्य की तरफ तो
हर चेहरा अद्भुत होता है
देवत्व की तरफ मुफीद ।
प्रणम्य,प्रार्थनीय
हालात के झंझावात से
बाहर निकलकर
मुस्कान विखेरता हुआ।
हाँ जब जब इस चेहरे में
राजकरने की आकांक्षा
जागृत होती है
चेहरा उतना सुंदर नहीं रह पाता
जितना सुंदर होना चाहिये
हाँ यह चेहरा
एक सहयोगी की तरह हो
तो लगता है
एक आदमी में ही
जाने कितने सुंदर सुंदर चेहरे हैं।
