पृथ्वी की कथा
पृथ्वी की कथा
मैं विशालकाय धरा,
गर्म गैस के गोले जैसी,
परिक्रमण-परिभ्रमण करती।
स्थल -जल मेरे अंग थे,
स्थल ने पेंजिया नाम लिया,
जल पेंथलासा कहलाया।
मैं सिकुड़ी, मैं टूटी,
कितने ही अंगों में,
बट गयी।
आपसी टकराव हुए,
कुछ नीचे धंसे,
कुछ ऊपर उठ गये।
हिमालय गिरि ने मुझे सजाया,
सागर की लहरों ने,
मेरा मान बढ़ाया।
मैं सुसज्जित थी, सुंदर थी,
वन-उपवन के घेरों से,
मैं प्राकृतिक खजाने की,
ममतामई देवी कहलाती थी।
मानव को आश्रय देकर,
मंद-मंद मुस्कुराती थी।
शनै-शनै हुई,
विनाश की कथा,
मेरा अंग-प्रत्यगं,
अब क्यूं बदरंग हो चला,
वन-उपवन पथरीले बनें,
समुद्री नीर जहरीला हो चला,
खग-विहग क्यूंकर बेघर हो गए।
अब सुनो मेरी व्यथा, मेरी कथा,
अ ! मेरे बालक- मेरे प्रिय,
कर लो अपने को अनुशासित,
मैं स्वयं ही पोषण कर लूंगी,
पुनः ममतामई दुलार देकर,
तुम्हें जीवन दान दूंगी,
मैं हूं धरा, मैं हूं पृथ्वी।