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परिवार

परिवार

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एक वट वृक्ष देखी

फैली ज़मीन में दूर दूर तक

लहराती डाली जिसकी

हवाओं संग गाती झूम झूम रत।


कुछ कलियाँ खिलती

नई कोपलें निकलती

फूल छोटे छोटे फल लगते

देख जिसे इतराते रह रह कर।


निकलते राही को छाया देता

धुप सुनहरी वो खड़ा ही रहता

सर्द हवाओं के संग भी

साथ निभाते मुस्काते रहता।


खुश हाल वट वृक्ष था

ना बरसात में वो सुस्त था

झड़ी लगे या मूसलाधार

हर पल लगे उसे त्यौहार


संग जो उसका अपना परिवार

ना बीच किसी के तकरार

गाता मदमस्त अपनी धुन में

प्रेम बरसता उसके जीवन में।


तभी अचानक आंधी आई

टहनी एक हुई अलग सी

वृक्ष की आँखें हुई कुछ नम सी

पर टहनी कभी ना अलग हुई।


मौसम फिर बदलते रहे

ख़ुशियाँ भी उमड़ती रही

हवाओं के संग ही वे

गाते और मुस्कुराते रहे।


वट वृक्ष की पूजा करने

आये दम्पति लाठी टेक

वट वृक्ष ने पूछा तब

दुखी भाव कुछ उनका देख।


बुजुर्ग ने सुनाया अपना हाल

हर बात का अब है मलाल

कमाया पैसा जीवन भर

ना रहा ठिकाना अब रत्ती भर।


जर्जर शरीर हुआ अब अपना

इस मोड़ पे टूटा सारा सपना

हुए बेगाने अपने सभी

बेटे बहु बच्चे भी।


गया संस्कार और प्यार

क्यों उजड़ा मेरा संसार

जिस्म के टुकड़े हो गए हो जैसे

बिखर गया मेरा परिवार।


आँसू ढल गया कोरों से

वृक्ष भी रोया जोरों से

अच्छा है मैं वृक्ष सही

ना चाहूँ किस्मत मनुज सी।


अपनों से ही परिवार है

ना समझे वो कैसा समझदार है

इतिहास दोहराता स्वयं को

इंसा ये कैसे भूल जाता है।


क्या वो युग कोई और था

जब घर छोटे दिल बढ़ा हुआ करते 

अतिथि देवता सा

माहौल ही खुश नुमा हुआ करते


अब घर बड़े हुआ करते

लोग क्यों तन्हा यहां रहते

जिंदगी गुज़र जाती है

ख़ुशियाँ पास से निकल जाती है।



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