परिणति
परिणति
वो रोज आता था,
नियत समय पर,
निश्चित स्थान पर,
(इसी किनारे),
नदी के इस छोर पर बैठा,
दूसरे छोर पर अस्त होते,
सूरज को देखता था।
मैं रोज उसे देखता,
वो कुछ लिखता,
कभी-कभी,
अपनी छलकी हुई,
आँखों को पोंछता,
और फिर लौट जाता।
कुछ दिनों बाद, एक दिन,
उसके लौटने पर,
मैं भी वहाँ गया,
मैंने लिखा पाया-
"प्रेम" !
पर आज उसकी चाल मद्दम थी,
चेहरा बुझा था,
गर्दन विचारों के बोझ से झुकी थी,
आज उसकी जगह पर नमी थी
शायद आज उसकी आँखें,
कुछ ज्यादा ही छलकी थीं-
और आज मैंने लिखा पाया-
"प्रेम-व्यक्ति-समाज" !
पर, इस बार,
वो कुछ दिनों के,
अंतराल के बाद आया,
पहले से ज्यादा गंभीर,
ललाट पर चिंतन की रेखायें,
पहले से ज्यादा विचार-मग्न,
आज मैंने उसका पीछा किया।
शायद आज भयंकर,
अन्तर्द्वन्द्व था,
उसके भीतर,
वो बैठा-
अपने चारों और दृष्टि डाली,
पर शायद मन का,
द्वंद्व मुझे न देख सका, या,
उसका भरा कंठ अधिक समय तक,
अपने आपको रोकने में अक्षम था।
आज वो खूब रोया,
फूट-फूट कर रोया,
अचानक अपने अश्रु पोंछ,
ध्यान-मग्न बैठ गया,
रोज की बजाय ज्यादा रुका,
फिर लिखा-
"सत्य-धर्म-नीति",
"सुख-मोह",
"पाप-प्रायश्चित",
और फिर चला गया।
आज तक नहीं आया-
पर मैं, आज भी,
उसका इंतज़ार करता हूँ,
मुझे विश्वास है, वो,
आयेगा, जरूर आयेगा,
क्योंकि अभी शेष है-
"परिणति" !