परिन्दें
परिन्दें
शिकारियों की चाल का, परिन्दे को क्या पता,
कहाँ पथ कहाँ बिछा जाल, परिन्दे को क्या पता।
धूप मे अठखेलियां करते है परिन्द उन्मुक्त हो कर,
कब कोई शिकारी आ जाये, परिन्दे को क्या पता।
घर की छत पर उड़ते आजाद परिन्दे के परों से,
घर सजाये जा रहे थे पर,परिन्दे को क्या पता।
उड़ा था परिन्दा अपनी भूख प्यास मिटाने घरौदे से,
लौटने से पूर्व ही शाख कट गई ,परिन्दे को क्या पता।
पिंजरे से निकला परिन्दा, यह सोच फिर उड़ेगा,
उडने की उन्मुक्तता भ्रम है, परिन्दे को क्या पता।
एक एक कर कटते जा रहे हैं पेड़ धरा के सारे,
कहाँ करेगा नीड़ का निर्माण, परिन्दे को क्या पता।
हजारों मील उड़ान भर परिन्दें परदेश से आते हैं,
ऐसा भी क्या है नदी ताल में, परिन्दे को क्या पता। ।