प्रेम विरह
प्रेम विरह
प्रेम विरह की ज्वाला में,
तन, मन, काठ सा जल जाय l
जितनी ये अगन बढ़े दिल में,
उतनी प्रेम परवान चढ़ जाय l
खींची चली बंशी की धुन में,
राधा, गोपियाँ सुध -बुध भुलाय l
गोपियाँ डूबी प्रेम विरह में,
छलिया कान्हा मंद -मंद मुस्काय l
ऐसी लगन लगी कृष्णा में,
मीरा घूमे जग में जोगन कहाय l
भूल गयी सब कुछ प्रेम में,
बस मोहन में ही ध्यान लगाय l
प्रेम विरह की इस आग में,
मान - मर्यादा कहीं ना मिट जाय l
प्रेम आदर्श सदा रहे जग में,
इसका सम्मान ना कहीं घटने पाय l
जिसने भी प्रेम किया जग में,
जालिम दुनियाँ उसे रही सताय l
कृपा करो भोले नाथ जी,
विरही प्रेमी आपस में मिल जाय l