प्रेम,स्त्री : तुलसी
प्रेम,स्त्री : तुलसी
प्रेम स्त्री का तुलसी के पौधे जैसे होता है
जिस जगह पनपता है वहां रहता है
कई कई बार कई महीनों सूख जाने के बाद भी
जब फिर स्नेह जल मिले
फिर से हरा हो जाता है
क्यूँ होता है?
क्या बार बार सूखने और
फिर हरा होने में आहत नहीं होता
पर समर्पण है स्त्री और तुलसी का श्रृंगार
मुझे इससे करना है इनकार
बताना है तुम्हें मैं जब सूखती हूँ
मेरी कोई एक खूबी शाख के जैसे टूट जाती है
प्यार की नदी हूँ मैं चाहे
पर कहीं कभी सूख जाती है
शिकायत नहीं कोई
कोई सवाल भी नहीं तुमसे
क्यूँ वक़्त नहीं था, या मैं जरूरी नहीं थी
ये भी नहीं जानना तुमसे
बस बताना है
अगर किसी स्त्री से प्रेम जताओ कभी
तो जिस पड़ाव पे तुम रहो उसी पे उसे रखना
जो तुम बाहर निकलो तो उसे भी बाहर निकलने का मौका देना।
ताकि उसकी खूबियों की शाखें सूखे ना
ये बार बार उगना और बार बार सूखना तकलीफ वाला होता है।