प्रेम नही आकर्षण है
प्रेम नही आकर्षण है
यह प्रेम नहीं आकर्षण है..............
जीवन पथ पर चलते - चलते,
कुछ लोग हैं ऐसे भी मिलते!
जो नयनों में बस जाते हैं,
पुनि अपने कहलाने लगते!
कुछ समय साथ रह जाते हैं,
फिर हृदय -व्याधि बन जाते हैं!
वेदना हृदय में होती है,
मिथ्या आंखें भी रोती है!
चित चंचल वो सब सहता है,
अवचेतन मन जो कहता है!
पुनि भ्रमित भाव वह करता है,
जो मान प्रतिष्ठा हरता है!
जैसे मुर्खों की भांति कीट,
दीपक लौ पर जा गिरता है!
जब चित्त चाह बढ़ जाती है,
कामना बेल मुस्काती है!
भावना पल्लवित होती है!
दुर्मति का सिंचन पाते ही,
कुबुद्धि बलवती होती है!
जैसे बिच्छू निज जायों के,
हाथों निज जीवन खोती है!
अब अकारण आकुलता है,
दुविधा शंका व्याकुलता है!
मन मंद मंद मुस्काता है,
कुछ दिवा स्वप्न दिखलाता है!
मन तृषा तीव्र हो जाने पर,
निजता का नेह मिटाता है!
जैसे विनाश जब आता है,
मति मंद मनुज हो जाता है!
तब लगे संकुचन जीवन में,
एक ही भाव हो बस मन में!
कुछ शेष दृगों को दिखे नहीं,
बस वह -वही प्रति -क्षण मन में!
दिगभ्रमित मंदमति मनुज उसे,
अंतिम विकल्प भी कहता है!
जैसे मंडूक कूप को ही,
सारा संसार समझता है!
जब स्वजन सुमार्ग दिखाते हैं,
अंतर -मन से समझाते हैं!
बातें कड़वी लगती उनकी,
थे गोदी में खेले जिनकी!
पुनि उन्हें ज्ञान सिखलाते है,
युग बदल गया बतलाते है!
पालक याचक बन जाते हैं,
फिर भी निज धर्म निभाते हैं!
कुल रीति नीति सब समझाते,
निज धर्म कर्म जब बतलाते!
सद् ज्ञान कठोर लगे ऐसे,
छू गया हो बाल -तोड़ जैसे!
कुछ दिवस ही साथ बिताने पर,
वासना पूर्ति हो जाने पर!
जब देह क्षुधा मिट जाती है,
तब मृषा प्रीति घट जाती है!
पुनि अश्रुपात विश्वासघात,
रोना धोना बस दिवस रात!
मन कामी जब भर जाता है,
दु:प्रीत मोड़ मुख मुस्काती!
जैसे कि जोंक रक्त पीकर,
मानव तन छोड़ चली जाती!
जब आकर्षण हट जाता है,
तब सत्य समझ में आता है!
मूर्खता समझ में आती तब,
मन व्यथित बहुत पछताता है!
जैसे भुकम्प के जाने पर,
अवशेष शेष रह जाता है!
इसलिये युवाओं सावधान,
समझो इसका यह तत्व ज्ञान !
यह प्रणय नहीं आकर्षण है,
संभले जितने भी सज्जन है!
वासना मूल में है इसके,
बस केन्द्र बिंदु इसका तन है!
उपयुक्त समय पर संभल सकें,
पुनि अर्थ कोई समझाने का!
अन्यथा फसल के सुखाने पर,
क्या लाभ वृष्टि के आने का?