प्रेम गंगा
प्रेम गंगा
प्रेम पर्याप्त है
अपने में, अधूरा वो नहीं,
तुम्हें जो देना है, दो,
चढ़ाना है, चढ़ाओ।
कहना है, कहो।
वो भाषा नही देखेगा
न त्रुटियां तुम्हारी,
मौन की भाषा भी
समझे है वो मुरारी।
वो भाव देखता है,
अंतर्मन को पढ़ता है,
विह्वलता से पिघलता है,
आंख,गर दीये बन जाएं
प्रतीक्षा में अश्रुरत हो जाएं।
प्रेम का तीर्थ ही बन जाएं,
तो पा जाओगे परमात्मा को।
अनन्त प्रतीक्षा का धैर्य लाकर,
>मन में मोहिनी सूरत बसाकर,
उस अतिथि को तुम बुलाओ।
प्रेम जब पूजा बन जायेगा
राह के कांटे ,फूल बनेंगे,
सबमें वो प्रभु ही दिखेंगे,
फिर इंतज़ार खत्म होगा ये
सजन,सजनी से आ मिलेगें।
तड़प कुछ पैदा करो ऐसी
जल बिन मछली तड़पे है जैसे,
पपीहे की चाह हो स्वाति बूंद की
तृप्त न हो किसी दूजे की।
फिर वो होगा बस तुम्हारा
हर तरफ, वो ही वो दिखेगा
प्रेम की गंगा कुछ ऐसी बहेगी
तुम्हें सराबोर कर के दम लेगी।