STORYMIRROR

Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Tragedy

4  

Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Tragedy

परायापन

परायापन

1 min
337

मैं अपने ही घर मे बहुत पराया हूँ

मैं तम का नही उजाले का साया हूँ

जिस अपने को हम बहुत चाहते है,

उसी से साखी घनघोर दुख पाया हूँ


किसको अब ज़माने मैं इल्जाम दूं,

कैसे हंसी लबों से सदा के थाम दूं?

बड़े ही घने दरख्तों मैं धूप पाया हूँ

मैं अपने ही घर मे बहुत पराया हूँ


रहता हूँ भले ही मैं स्वर्ण पिंजरे मैं,

पर उन्मुक्त गगन से बड़ा दूर आया हूँ

खाता हूं 56 भोग से ज़्यादा भोग,

स्वाभिमान का साया छोड़ आया हूँ


मैं अपने ही घर मे बहुत पराया हूँ

हृदय के घर मैं देता नही किराया हूँ

इस परायेपन से कौन छुड़ायेगा?

मेरे आंसुओ को कौन सुखायेगा?


सोच मैं ख्वाबों की दुनिया छोड़ आया हूँ

पत्थरों पे फूल उगाने की सोच आया हूँ

मैं अपना स्वाभिमान जगा के आया हूँ

मैं परायेपन को तलाक दे आया हूँ


मैं भीतर के महल मैं बड़ा सुकूँ पाया हूँ।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract