प्रात पुष्प
प्रात पुष्प
प्रात ही रात व्यतीत हुआ,
मुर्गे जब बांग प्रशस्त किए,
आरंभ हुआ कलरव खग का,
मृग विचरण तब, प्रारंभ किए
धन भीर, गंभीर, ये नव मानव
प्रातः मन मंगल गान चले ।
जब ओस की बूंदें छलक पड़े
जस अरवी पात में मोती जड़े
अरुणोदय लाली देख के जब
कोंपल पुष्पों के प्रमुदित हों
प्रिय लट पर ओस की बूंदें जब
कंचन हों लाली से दिनकर के,
कवि देख अनोखे मुखड़न को
कविता उमड़े निज अंतर्मन !
झुरमुट बीच से अरुण छटा,
भर दे अंगड़ाई श्वानों में,
दुग्ध पान कर गो शावक,
जब भरे कुलांचे द्वारों पर,
शिशु गोंद में ले के आजी जब
द्वार पलंग पर मलंय उबटन,
गो शावक सूंघ के उबटन को
भर मारि पछाड़ी को दौड़ पड़े !
यह देख छलांग गो शावक का
शिशु कर किलकारी प्रसन्न भए
यह निहार प्रमोद, दादी अधरन की
कवि अंतर्मन निःशब्द हुए!!