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आनन्द मिश्र

Abstract Classics

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आनन्द मिश्र

Abstract Classics

मकड़ जाल

मकड़ जाल

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प्रेम और घृणा

पषित होता है,

इतिहास के पन्नों से,

पल्लवित होता है,

किसी प्रतिफल की चाह लिए,

कल्पनाओं के अथाह सागर में।


सुतली की डोर से बुने जाते हैं

संबन्ध ,

जिसकी प्रगाढ़ता,

बदलते मौसमों पर आश्रित है,

जहां होता है सिर्फ,

धुंधले कल्पनाओं का चिराग,

जिसके सहारे, लड़खड़ाती है

जिंदगी,


सिर्फ, निष्ठुरता के ईंधन से चलने वाली गाड़ी,

नहीं चलती, लम्बे रास्तों पर,

खपाना होता है

प्रेम का ईंधन, घृणा की चिंगारी से,

बुनना होता है, उपयोगिता का स्वर्णिम राह,

जिसपर चलते - चलते कभी

ना बिखर सकें,

सहयात्री ।


जैसे पहाड़ों को तोड़कर नदियां

अपने वेग में

बहा ले जाती है,

अष्टावक्र पत्थरों को

और बना देती है

आपस के ठोकरों से,

ठक - ठका के

बहुलाकार (गोल,अंडाकार इत्यादि पत्थर)

जो अक्सर,

बहते - बहते गुम हो जाता है,

कहीं रेतों की गहराई में,

या टूट कर बिखर जाता है

रेतों में,

खो देता है,

अपनी पहचान

या, ताकतवर मशीनों में

पीस कर बना दिया जाता है

सीमेंट,

और चिन दिया जाता है

किसी सिंहासन के पौड़ी में।


यहां कोई अन्य स्वर्ग नहीं है,

न ही नरक है

न ही मिलता है, किसी अकेले को,

यहां मिलके ही पूरा करना होता है

अपनी यात्रा।


नहीं होता भय,

किसी जलजला के आने का,

जो बर्बाद कर दे उस

बने बनाए स्वर्ग को,

जो दीप्तिमान रहता है घृणा के चिंगारी से।


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