कोरा कागज
कोरा कागज
मैं देख रहा था कोरे कागज में कोई कोण,
ढूंढ रहा था धवल पृष्ठ पर कोई मोड़,
जिसमें मुड़ कर खुद खुद में मुड़ जाऊं मैं,
सोच रहा था कविता एक बनाऊं मैं।।
मैं देख रहा था बनते मिटते चित्रों को,
ढूंढ रहा था, भाई बहिन और मित्रों को,
जिनके चेहरे की कोमलता को गाउँ मैं,
मन्द हास की कविता सा मुस्काऊ मैं,
मैं देख रहा था खुद अपनी ही छाया को,
कभी देख रहा था अन्धकार की काया को,
जिसमें छुपकर एक दीपक सा जल जाऊं मैं,
मद्धिम प्रकाश सी कविता एक जलाऊं मैं।
मैं देख रहा था कागज में अपने मन को,
जैसे समझ रहा था टिक-टिक करते जीवन को,
सद्कार्यों को तन-मन सब दे जाऊं मैं,
काली स्याही से श्वेत पत्र रंग जाऊं मैं।
हां सोच रहा था कविता एक बनाऊं मैं।।