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ritesh deo

Abstract

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ritesh deo

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पत्थर का शहर

पत्थर का शहर

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मैं पत्थर के शहर में


मैं पत्थर के शहर में, कहाँ चला आया,

भीड़ में रहकर भी, खुद को अकेला पाया !

मैं पत्थर के शहर में . . .

दिलों में प्यार ना जज़्बात, नांहि हमदर्दी,

खून के कतरे को ही, खून से जुदा पाया !

मैं पत्थर के शहर में . . .

मैंने देखें हैं यहाँ, हाड़-मांस के पुतले,

जिनमें धड़कन के सिवा, लाग ना अक़ीदा पाया !

मैं पत्थर के शहर में . . .

यहाँ जीता है मरता है, कौन किस के लिये,

जिसे देखा उसे, दौलत पे ही, फ़िदा पाया !

मैं पत्थर के शहर में . . .

कौन होगा जो करे, तार-तार जाये-रिश्ते,

मैंने अपनों को यहाँ, अपनों का दुश्मन पाया !

मैं पत्थर के शहर में . . .

मुझे दूर ले चल ऐसी जगह, मेरे मनवा,

जहाँ मुनि संतों ने, भक्ति प्रेम से रब को पाया !

मै पत्थर के शहर में


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