प्राण पखेरू
प्राण पखेरू
हुआ जाता दूर प्राण पखेरू, थामा लेकिन थमा नहीं,
देवदूत के पंख लगाकर, सुन आत्मा भटक रही है।
निज लोभ बढ़ा मानव मन,अधर्म हुआ विकसित,
नस-नस में सबके,अनंत हैवानियत लहक रही है।
आजकल की जिंदगी, क्यों नीचे धँस रही है?
उन्नति बन विधवंस नीलम, जग पर विहँस रही है।