पंछी बनने की चाह
पंछी बनने की चाह
काश अगर मैं पंछी होती
उड़ती दूर गगन में
जब चाहे जा बैठती
किसी फूलों भरे चमन में !
ना किराये की चिंता होती
ना बस की मारामारी
पल भर में पंख फैला कर
बस लेती एक उडारी !
किसी मस्जिद का गुंबद हो
या मंदिर का ऊँचा शिखर
मेरे लिए दोनों एक से होते
बैठती कहीं भी हो बेफिकर !
सरहद मुल्कों की क्या होती है ?
मुझको इसका भान न होता
मजहबों की टकराहट से यों
दिल मेरा लहूलुहान ना होता !
दाना चुगती फुदक-फुदक
इस आँगन उस आँगन में
पी कर ठंडा पानी उड़ जाती
फिर से नील गगन में !