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L. N. Jabadolia

Tragedy

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L. N. Jabadolia

Tragedy

पलायन मज़दूर की व्यथा

पलायन मज़दूर की व्यथा

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दो वक्त की रोटी का मुसाफिर हूँ,

हाँ, मैं मज़दूर हूँ, आज मज़बूर हूँ।

तुम महलों से टक टक झाँक रहे,

लेकिन अभी घर से मैं कोसों दूर हूँ।


छिन गया रोजगार, ठिकाना खाना-पीना,

लौट रहा हूँ उस बंद मज़दूरमंडी से।

फूटी कोड़ी को तरसता मेरा फटा पायजामा,

घर वापसी कर रहा पक्की पगडण्डी से।


रोते बिलखते बच्चे, बुजुर्ग है मेरे साथ,

सियासते मदद को नहीं बढ़ाते हाथ।

तड़फ रही है मेरी भूखी आँते,

तलाश रही है खाना सूजी आँखे।


बह गया लहू छालों से पैदल चलते-चलते,

चिलचिलाती धुप में, बच रहा हूँ मरते मरते।

बिन जल हलक, मेरी आवाज सूख गयी,

रक्त बिन रुधिर कणिकाएं भी सूख गयी।


मुफ्त नहीं, हाँ भाड़ा भी चुका दूंगा मैं,

पायल, बैल बेच के खुद जुत जाऊंगा मैं,

कीमत मेरे वोट की वही है तेरे सिंहासन में,

दम तोड़ रहा शरीर, ज़मीर जिंदा है जेहन में।


हे प्रधान राजा, एक मन की बात हमारी भी सुन लो,

अर्थ बजट में एक छोटा सा हमारा हिस्सा भी चुन लो।

गर शहजादों की भांति नही, रेल मोटरगाड़ी से बुला लो।


चुनावी वादे थे चील गाड़ी के सफर का,

जहाज़ नहीं तो हवाई चप्पल ही दिला दो।


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