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Rajeshwar Mandal

Tragedy

4  

Rajeshwar Mandal

Tragedy

पिता श्री

पिता श्री

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 जिंदगी भर सुलझे सुलझे रहे

 पर एक अबुझ पहेली बने रहे

 लाख कोशिश किया समझने की

 पर सरल ह्रदय समझ से रहे परे


 मै उनका प्रिय रहा

 या वो मेरे प्रिय रहे

 जरा सी चूक पर आग बबूला

 फिर भी आंखो का तारा बने रहे

 खुशी का कारण कौन किसका

 आज तक हम समझ न सके


 हालांकि मैं वयस्क था

 सही गलत को परखने में समर्थ था

 फिर भी वो बीच बीच में 

 अपना निर्णय सुना जाते थे

 तुम अभी बच्चे हो

 अहमियत अपनी बता जाते थे

 जीवन के अंतिम क्षणों तक

 यह सिलसिला जारी रहा

 और एक अबोध बालक की तरह

 मैं भी नित उनसे सिखता रहा


 जब जब मुझको हंसते देखा

 उनके चेहरे पर स्मित की रेखा

 पास बुलाते सर पर हाथ रखते

 फिर मेरी ओर देख मंत्रमुग्ध हो जाते

 दिन महीने और साल यूं ही बितता रहा

 फिर एक दौर ऐसा भी आया

 लेटे उनको विस्तर पर पाया

 चिंता की एक लकीर खिंची

 देख उनका दुर्बल काया

 और शनैः-शनैः एक दिन

 सूरज अस्त हो गया

 ऐसा लगा मेरे जीवन का

 एक अभिन्न अंग विनष्ट हो गया


 नित दिन की भाँति 

 आज भी काम पर से लौटा हूँ 

 घर वही आंगन वही

 पर दरवाजे पर सन्नाटा है 

 न पक्षी की कोई कलरव 

 न मधुर संगीत की धुन है 

 भरा पुरा है घर आंगन 

 पर बिन पिता

 यह भव्य महल सुन्न है


 आज सरकारी फार्म भरते वक्त

 खुद को दुविधा में पाया

 जहां लिखते थे श्री

 वहां कांपते हाथों से

 स्वर्गीय लिख कर आया

 कभी कभी सोचता हूं 

 कितना मुश्किल है 

 स्वर्गीय लिखना 

 उन नाम के आगे

 जहां बड़े ही शान से 

 कभी श्री लिखा करते थे।


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