फिर उसी बरगद के नीचे
फिर उसी बरगद के नीचे
शहर से हम गांव में कुछ पल बिताने आ गए
फिर उसी बरगद के नीचे घर बनाने आ गए
देखी जब कागज की कश्ती बूंदों से लड़ती हुई
याद बचपन के वही गुजरे जमाने आ गए
भी लम्हे क्या हसीं थे दिल में बेफिक्री लिए
उम्र गुजरी दर्द कितने फिर सताने आ गए
जब कहीं पाया नहीं हमने सुकूँ वैभव तो फिर
माँ के पहलू में सिमट खुद को छुपाने आ गए।
