फिर बेटी ना बन पाई
फिर बेटी ना बन पाई
कैसी रीत है दुनिया की ,
युग बीता , समय बदला ,
पर रीत वहीं पुरानी रह गयी ,
बेटी जो एक बार बहू बनी ,
फिर बेटी ना बन पाई ।
दौड़ कर पानी ले आती थी ,
शाम की चाय बनाती थी ,
आज रसोई के दरवाजे पर
झिझक आके खड़ी हुईं ,
जाऊ या ना जाऊं ?
ये कहां मैं उलझ गयी ?
क्यों मैं फिर बेटी ना बन पाई ?
मां की साड़ियां लपेट लेती थी ,
देख देख कर आईने में
खुद को रिझाया करती थी ।
आईना मुझसे आज सवाल पूछे -
" क्या रिझाने को आज कोई आंचल नही" ?
अलमारी भी टोंके मुझे -
"चाबी से इजाजत ली या नहीं ?"
गर्म हवा बन कर कभी जो बढ़ती उम्र बहती थी ,
मां बाबा के लिए ढाल मैं बनती थी ।
कभी दवाइयों के पर्चे , कभी रसोई के खर्चे ,
मैं सब सहेज लेती थी ।
तब मैं बेटी कहलाती थी ।
गर्म थपेड़े लूं में बदले ,
मैं दूर से देखती हूं ,
सब ठीक है ना?
क्या आऊ मैं ?- ये क्यों पुछती हूं ?
बंद मुट्ठी में भींचा मन पसीजता रहता है ,
चंद टुकड़े कागज के लरजते रहते हैं ,
जाने इजाजत ये किससे चाहते हैं ?
मैं बेटी बन फैसला ये ना कर पाई ।
मैं फिर बेटी ना बन पाई ।
उंगुलियो को थाम कर जिनके ,
पग पग पांव चली थी मैं ,
कांपते है वो हाथ अब ,
क्यों उन्हें ना थाम पाई ?
हाथों से कंधे का फासला
मैं ना तय कर पाई ,
दुआएं तो बहुत की मैंने ,
क्यों दवा हाथों में ना थमा पाई ?
क्यों मैं पापा की परी , फिर बेटी ना बन पाई ?
सुबह से शाम तक
आवाजें सुना करती हूं ,
क्या बनेगा खाने में ?
क्या देना है पड़ोस में ? -
सवालों से उलझा करती हूं ।
थक कर बैठूं जो थोड़ी देर
रिश्ते नाते लेते हैं घेर ।
नये बंधे रिश्तों में
हाथों से क्या कुछ छूट रहा ,
मां पुकारती है मुझे - मन मेरा कह रहा ।
पांव का दर्द फिर बढ़ा होगा ?
क्या कुछ हुआ होगा ?
हाल पूछ लूं मां का
अपना फोन उठाती हूं ,
तभी पुकार आती है -" मां"
मैं " मां" बन उठ जाती हूं
मैं बेटी नहीं बन पाती हूं ।