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Dr. Tulika Das

Tragedy

4  

Dr. Tulika Das

Tragedy

फिर बेटी ना बन पाई

फिर बेटी ना बन पाई

2 mins
381


कैसी रीत है दुनिया की ,

युग बीता , समय बदला ,

पर रीत वहीं पुरानी रह गयी ,

बेटी जो एक बार बहू बनी ,

फिर बेटी ना बन पाई ।


दौड़ कर पानी ले आती थी ,

शाम की चाय बनाती थी ,

आज रसोई के दरवाजे पर

झिझक आके खड़ी हुईं ,

जाऊ या ना जाऊं ?

ये कहां मैं उलझ गयी ?

क्यों मैं फिर बेटी ना बन पाई ?


मां की साड़ियां लपेट लेती थी ,

देख देख कर आईने में

खुद को रिझाया करती थी ।

आईना मुझसे आज सवाल पूछे -

" क्या रिझाने को आज कोई आंचल नही" ?

अलमारी भी टोंके मुझे -

"चाबी से इजाजत ली या नहीं ?"


गर्म हवा‌ बन कर कभी जो बढ़ती उम्र बहती थी ,

मां बाबा के लिए ढाल मैं बनती थी ।

कभी दवाइयों के पर्चे , कभी रसोई के खर्चे ,

मैं सब सहेज लेती थी ।

तब मैं बेटी कहलाती थी ।


गर्म थपेड़े लूं में बदले ,

मैं दूर से देखती हूं ,

सब ठीक है ना?

क्या आऊ मैं ?- ये क्यों पुछती हूं ?


बंद मुट्ठी में भींचा मन पसीजता रहता है ,

चंद टुकड़े कागज के लरजते रहते हैं ,

जाने इजाजत ये किससे चाहते हैं ?

मैं बेटी बन फैसला ये ना कर पाई ।

मैं फिर बेटी ना बन पाई ।


उंगुलियो को थाम कर जिनके ,

पग पग पांव चली थी मैं ,

कांपते है वो हाथ अब ,

क्यों उन्हें ना थाम पाई ?

हाथों से कंधे का फासला

मैं ना तय कर पाई ,

दुआएं तो बहुत की मैंने ,

क्यों दवा हाथों में ना थमा पाई ?

क्यों मैं पापा की परी , फिर बेटी ना बन पाई ?


सुबह से शाम तक

आवाजें सुना करती हूं ,

क्या बनेगा खाने में ?

क्या देना है पड़ोस में ? -

सवालों से उलझा करती हूं ।

थक कर बैठूं जो थोड़ी देर

रिश्ते नाते लेते हैं घेर ।

नये बंधे रिश्तों में

हाथों से क्या कुछ छूट रहा ,

मां पुकारती है मुझे - मन मेरा कह रहा ।

पांव का दर्द फिर बढ़ा होगा ?

क्या कुछ हुआ होगा ?

हाल पूछ लूं मां का

अपना फोन उठाती हूं ,

तभी पुकार आती है -" मां"

मैं " मां" बन उठ जाती हूं

मैं बेटी नहीं बन पाती हूं ।


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