पहचान
पहचान
इंसान हूँ
पर धन रहित होने से,
एक धुंधली सी पहचान हूँ।
मेरे अनमोल शब्द किसी के
काम नहीँ आते अब
क्योंकि इनसे नहीँ झरते हीरे-मोती।
मन की मीठास से ज्यादा शक्कर
तो होती है दूध मलाई और रसगुल में,
लेकिन इन्हें
खरीद कर खिलाने की अर्थवत्ता नहीँ रखता मै।
सड़ चुके गुलाब के मानिंद
हमारी सभ्यता
सिर्फ चन्द खनकते सिक्को पर बदलती रहती है।
मै "धन की प्राप्ति" से ज्यादा
"धन के असीमित नुमाइश" से
अचंभित हूँ।
समाज की भौतिकवादी सोच,
मनुष्य के भविष्य के आदर्श को
अपमानित करती हुई
हर बार किसी न किसी मौलिकता को
कृत्रिमता का चोला पहनने को मजबूर करती है
मनुष्य होने का एक ही प्रमाण शेष रह गया है
कि
नोटों का पहाड़ कितना ऊंचा है
जिस पर आप खड़े है
और कितने लोग
आपकी और ताक रहे है
अपने लपलपाती जिव्हा के साथ।
मै सच लिखूंगा और लोगो
की सतही सोच का शिकार हो जाऊँगा
मेरी दुश्मनी नहीँ है
धन से,
मेरी दुश्मनी है धन के व्यंगात्मक प्रदर्शन से।
वही कामयाब है यहाँ
जो तैयार कर रहा है अपनी मजबूत
कमर और पैर ताकि वह भी
दिन रात एक कर के
मनुष्य के आवरण से बाहर आकर
मुद्रा छापने वाली एक टकसाल हो जाए !