फासला कैसा!
फासला कैसा!
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
ont-family: Arial; color: rgb(0, 0, 0); font-variant-numeric: normal; font-variant-east-asian: normal; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">1222 1222 1222 1222
तू शब-ए-रोज़ मुझे बेतहाशा याद आता है,
है डूबे कश्ती-ए-दिल आँखों से जो अश्क़ बहता है।
कमाई है तिज़ारत-ए-मुहब्बत में ग़म-ए-दौलत,
गिला किस से करूँ मैंने किया ख़ुद का जो घाटा है।
तुझे मिलके भी जुड़ ना पाऊँ है ये फासला कैसा!
ब-ज़ाहिर सा फ़लक औ फ़र्श का दिखता जो नाता है।
यूँ हिज़्र-ए-यार के ग़म में ही जिस्म-ओ-रूह जलते हैं,
तसव्वुर में तिरी क़ुर्बत ये आग मेरी बुझाता है।
फ़िदा है लाखों आशिक़ यूँ अदाओं पे मिरी लेकिन,
सिवा तेरे भी 'ज़ोया' को न कोई और भाता है।
25 June 2021/ Poem 26