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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

पगला

पगला

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लोग कहते है, मैं पगला हूं 

सादगी का व्यर्थ तबला हूं

सत्य पर जब-जब चला हूं 

लोगों द्वारा बहुत छला हूं

लोग कहते है, मैं दुनिया में, 

मूर्खता का बड़ा गमला हूं

दुनियादारी के अभाव में, 

हो गया आम पिलपिला हूं

लोग कहते है, मैं पगला हूं 

सादगी का व्यर्थ तबला हूं


लोग की नजर में, मैं हुआ, 

बेवकूफ़ी का एक नगमा हूं

क्या सीधा होना गुनाह है? 

यदि हां तो में दिलजला हूं

दुनियादारी का भूला हुआ, 

मुसाफिर साखी मनचला हूं

लोग कहते है, मैं पगला हूं 

सादगी का व्यर्थ तबला हूं


जानता नहीं छद्म कला हूं 

सब कहते है, मैं पगला हूं 

जग में,मैं क्यों नहीं खाता, 

धोखे की मिर्च शिमला हूं 

सब खफा रहते है,मुझसे, 

कहते क्यों मैं इंसां भला हूं 

मैं तो सीधी रह चलता हूँ

जलाता दीपक उजला हूं

लोग कहते है, मैं पगला हूं 

सादगी का व्यर्थ तबला हूं


लोग भूले है, असलियत, 

में न भूलूंगा,असलियत, 

में आत्मा एक निश्छला हूं

न चढ़ाऊंगा ओर आवरण, 

घट रखूंगा जल निर्मला हूं

लोग कहते है, मैं पगला हूं 

मैं पागलपन में ही खुश हूं,

दिल न करता गंदा तला हूं 

अपनी ही मस्ती का पंछी हूं

उडूंगा बनकर चील फला हूं



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