पाँव लड़खड़ाते हैं
पाँव लड़खड़ाते हैं
अपनी गोद में खिलाया जिसे अचानक वो ज़िंदगी के इस मोड पर छोड़ चला
पापा कब आयेंगे दादू, पीछे से बच्चों के शब्द कानों में गूँज जाते हैं
उजड़ा चमन, सूना निकेतन, कुलदीपक की लौ आज अचानक से बुझ गयी
उम्र के इस पड़ाव पर अब ये बूढ़े कंधे भार नहीं और झेल पाते हैं
अपने आँसूओं को रोक कर झूठे मुस्कान के सब चेहरे बना रहे हैं
पोते-पोती की जिम्मेदारी, मन बोझिल हुआ और पाँव लड़खड़ाते हैं
क्या- क्या सपने संजोय थे बाबूजी ने इस बाग को सींचा खुशी के फल भोगेंगे एक दिन
चैन की नींद सोयेंगे काँधे पर बैठ कर पुत्र के निज धाम को सब जाते हैं
जो हाथ थे बुढ़ापे की लाठी, आज बूढ़े हाथों ने स्वयं उसकी चिता में अग्नि जलायी है
भयावय रूप देख रोती धरा, कल तक जो बहू थी घर की आज बेटी उसको पुकारते हैं.
