ओल्ड होम
ओल्ड होम
रोज पकडकर हाथ जिसे स्कूल ले गया मैं।
ओल्ड होम वो भेज रहा, है बेटा मुझको ।।
क्या बेटे को इसीलिए तैयार किया था,
क्या इस दिन के लिए उसे बेदार किया था।
बेटे की खातिर अपना सर्वस्व लुटाकर,
शिक्षा देकर क्या खुद पे ही वार किया था।।
अपने घर से ही होकर निष्कासित लोगों,
आज पड़ा है इस रस्ते पर आना मुझको।
रोज पकडकर हाथ जिसे स्कूल ले गया मैं,
ओल्ड होम वो भेज रहा, है बेटा मुझको।।
अपने घर को अपना घर भी, कह ना पाऊँ,
वंचित हूँ ड्राइंग रूम से, किसे बताऊँ।
फर्नीचर सा हुआ पुराना, एक कमरे में,
रखा हुआ हूँ, कैसे अपनी व्यथा सुनाऊँ।।
पर अब तो कमरा, पोते के लिए चाहिए,
बाहर का रस्ता यूँ, गया दिखाया मुझको।
रोज पकडकर हाथ जिसे स्कूल ले गया मैं,
ओल्ड होम वो भेज रहा, है बेटा मुझको ।।
हाथ पकड़ने से मेरा, वो कतराता है,
मेरी सेवा वो नौकर, से करवाता है।
जिसे बिठाकर कांधों पर, मैं खुश होता था,
मुझे देखकर के उदास, वो हो जाता है।।
बोझ समझने वाले ने, ये राह चुनी अब,
ओल्ड होम के लाभ, रोज गिनवाता मुझको।
रोज पकडकर हाथ जिसे स्कूल ले गया मैं,
ओल्ड होम वो भेज रहा, है बेटा मुझको ।।
किसे बताऊं कैसे मैंने, गरल पिया है
चाक हो गए सीने को किस, भांति सीया है।
दर दर भटका हूँ जिसके, खातिर "अनंत" मैं,
एहसानों का उसने, कैसा सिला दिया है।।
कौन सुने जो इतिहासो के, पन्ने खोलूं,
बना दिया है सचमुच, एक तमाशा मुझको।
रोज पकड़कर हाथ जिसे स्कूल ले गया मैं,
ओल्ड होम वो भेज रहा, है बेटा मुझको ।।
