नवयौवना
नवयौवना
खिल रही कलियांँ लजाती लाजवंती
हो रहा है बावरा मनवा बसंती।
गिर रही है पंखुड़ी छूकर पवन को
ले रही अंगड़ाइयां डाली मगन हो।
देख कर नवयौवना दर्पण लजाए
नीर के उर में कोई कंकड़ चलाए।
मन है घायल अपने ही दृग तीर खा कर
सोलह बसंती ऋतु को अंतः में समा कर।
बालपन अल्हड़ सा उर में खेलता है
तेज़ यौवन का नज़र से बोलता है।
पाँव धरती पर हृदय आकाश में है
सपनों का इक संसार बाँहों में भरा है।
पारखी बन जिंदगी हमको परख लो
हम खड़े मैदान में दो दो हाथ कर लो
आज तुम हमको तपा दो स्वर्ण जैसा
जाते हुए स्मृति रहे आभा के जैसा।
साज है श्रृंगार है और मन अटल है
ध्येय है सच्चा तो यह जीवन सफल है।
आज और कल का समागम हो रहा है
भावी कल नजरों में जगमग कर रहा है।

