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Ragini Preet

Others

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Ragini Preet

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तरंग

तरंग

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तुम जब भी मुझको छूते हो

मेरे मन के स्थिर जल में

तेज़ बहुत तेज़ तरंगे उठती हैं।

तुम्हारे कठोर वहशी 

और कंटीले आँखों के कंकड़ से

मेरे मन के शांत सरोवर में

लहरों का सैलाब सा आता है।


तुम जब भी मेरे मानस के

कोमल कमल कुचलते हो

मन पुष्कर भयभीत सिमटता है

छल कर पानी नीर बहाता है।


मैं भरसक कोशिश करती हूँ

हर बार यही चाहती हूँ

कि इस सैलाब में तुम्हें डुबो दूँ 

ध्वस्त कर धूल कर दूँ तुम्हारे 

हवस से भरे पहाड़ जैसे दंभ को।

लेकिन तुम हमेशा की तरह 

परिवार, समाज और मर्यादा

के सेतु से बच जाते हो।


कंकड़ तुम्हारे, लाँछन मेरा

अब यह और न होगा।

पाप तुम्हारे मलीनता मेरी

अब यह भी नहीं होगा।

नन्ही-नन्ही लहरें भी अब

चक्रवात बना देगी

तेरे दंभ के सिंहासन से

निश्चित तुम्हे गिरा देगी।

लहरें मिल नाद करेंगी

जुल्मी पर आघात करेंगी

जो नाव बचाती है तुमको

उसका भी संघात करेंगी।



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