"नव यौवना"कविता.. साजिदा
"नव यौवना"कविता.. साजिदा
खोल सपनों के द्वार,
तू बढ़ चल उस ओर,
जिस दिशा में सफ़लता,
खड़ी है बांहें खोल कर,
अपने सपनों को कर पूरा,
चाहे आएं कितनी ही बाधाएं,
तू है आज कि "नव यौवना"
ना तू अबला नारी है,
ना तू आज के पुरूष रूपी,
दंभी पुरुष की धरोहर है।
ऐ नव यौवना तूने कि है
अपने दम पर"चाँद
की यात्रा, तूने की है,
समंदर की भी यात्रा,
तूने "पहराई" है अपनी
एवरेस्ट की चोटी पर
कामयाबी की "पताका "
ऐ नव यौवना तूने दिखला दी,
इस दुनिया को मैं "अबला"
नहीं हूँ।
आज की नव यौवना हूँ,
मुझको ना तुम कमत्तरी का,
अहसास करना, मुझको न,
तुम अब कह पाओगे,
बाहर निकल कर तुम,
"कौन सा तीर मार लोगी"
मैंने तीरअदांज़ी में भी,
मैनें तैराकी में भी,
मैनें हवाओं में भी
कर लिया है अपना,
"वर्चस्व".... !