नुक्कड़ वाला फ़ोन
नुक्कड़ वाला फ़ोन
बात उस टाइम की है यार,
जब न होता था मोबाइल
हर किसी के पास,
तब प्यार भी गजब का
होता था यार,
महबूब से मिलने के लिए
चलता था दोस्तों का झुंड साथ।
आज छत पर खड़े-खड़े
नीचे गली में झांका,
तो देखा दो लड़कियों के पीछे-पीछे
चार लड़कों का झुंड चल रहा था,
तब अपना भी जमाना याद आया,
वो प्यार का फ़साना याद आया।
क्या दिन थे, क्या शामें थी
दोस्तों के घर कापियां-किताब
लेने के बहाने होते थे,
उसी बीच रास्ते में कोई
स्मार्ट सा दिख जाये कोई तो,
धीरे से दूसरे के कान में कहना होता था
वाओ क्या तेरी गली में रहता है ?
फिर नजरों से नजरों का टकराव होता था,
और अगले दिन भी उसी दोस्त के घर
जा कर पढ़ने-लिखने का
सिलसिला शुरू हो जाता था।
कसम से पढ़ाई तो कम होती थी,
छतों के ऊप्पर बैठ कर,
दूसरे की छतों में ताका झांकी
में अलग ही मजा मिलता था।
और नुक्कड़ वाले फ़ोन से
बातों का सिलसिला शुरु होता था,
वो एक रूपये वाली कॉल में
तीन-चार मिनट बात हो जाती थीं,
यहाँ-वहाँ की बातों में दस रुपये की कमाई
नुक्कड़ वाले अंकल या आंटी की हो जाती थी।
और तो और यारों कहानी में ट्विस्ट तब आता था,
जब फ़ोन करने के बाद फ़ोन सामने वाली
पार्टी के यहाँ कोई और उठाता था,
और एक रुपया यू हीं शहीद हो जाता था।
फिर नजरों को यहाँ-वहाँ घुमान होता था,
और मिन्नतें हजार कर के लड़की है तो लड़की से,
लड़का है तो लडके से फ़ोन कराना होता था।
कसम से उस प्यार के जवाँ होने में
नुक्कड़ वाले फ़ोन का बड़ा हाथ होता था।
दिलो का धड़कना क्या खूब होता था,
नजरें मिला कर नजरें फेर लेना बखुबी होता था,
वो नुक्कड़ वाले, सहेली के घर के पास वाले प्यार का
एहसास अपने आप में खूब होता है।
और हर किसी की जिंदगी से
जुड़ा ये पन्ना यादगार होता है,
वो नुक्कड़ वाले प्यार का
अपना ही मजा होता है।