नफरत
नफरत
क्यूँ यार नफरतों से दुनिया भरी हुयी हैं
लगते हैं अब तो अपने ये रूह भी पराये
हर शख्स कर रहा हैं यहाँ क़त्ल उल्फतों का
वो भी हुए पराये जो कल ही पास आये।
हर दिन यहाँ डरा सा हर रात यहाँ रूठी
इंसान कि गली में अब हैं इमान झूंठी
बदनाम कर रहे हैं खुद ही गली को अपने
फिर दोष दे खुदा को तुमने न की वफायें।
करते इमाने रौशन इंसानियत के बंदे
वो तो चला रहे हैं नफरत भरी हवायें
झूंठी बढ़ा रहे हैं अपनी वो शाने महफ़िल
पल पल बदल रहे हैं अपनी यहाँ फिजाएं।
अब यार हो गया हैं जिल्लत भरा जमाना
दुश्वारियों में अब तो अपना हैं आना जाना
राहे वफा में किसको माने कि ये हैं अपना
जब सर को काटते हैं अपने ही आजमाए।
रिश्तों के मायने तो सब खत्म हो गए हैं
बाकी बस इक रिश्ता हैं स्वार्थो का सबसे
देखो बदल गया हैं कैसा अब ये जमाना
ईमान रो रहा हैं सर को यहाँ झुकाए।
कोई नहीं किसी का दौरे जहाँ में उल्फत
वो हमको आजमाए हम उनको आजमाए
रोने को ना मिला था हमको भी कोई कान्धा
हैं बात आज क्या कि काँधे पे हैं उठाये।
जो आज रो रहें हैं आँखों में अश्क लेकर
वो भी थे गुजरा करते गलियों में सर झुकाएं
दीदारें हसरतें तो मन में ही रह गयी सब
न वो ही पास आये न हम ही आये !
