नजरबंद
नजरबंद
कब तक सीता पर लांछन
कब तक अग्नि में कूदे ?
कब तक सभी समाज
रहे चुप और आंखें मूंदे।
स्त्रियां कब तक नजरबंद रहे
कब तक वह हर पीड़ सहे
पुकारती रहती वो खिड़की से
नयन भीगे गले रुंधे।
अब वक़्त आया है सम्मान का
मिलने लगा उन्हें पहचान का
अब हंसाओ उन्हें सदा ही जन
बलखाती हवा को हंसी दे।
