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Shravani Balasaheb Sul

Abstract

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Shravani Balasaheb Sul

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नजर

नजर

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कही नज़र भी 

न पढ़ी जाए सुनी जाए

शब्दों की तरह इसकी कोई 

कहानी न बुनी जाए


ईस डर से पलकों ने 

जैसे घुंघट चढ़ा दिया 

और नज़र को नज़र 

लगने से बचा लिया 


फिर जो नज़र ने एक 

अनोखा नजारा देखा

भीतर एक नगर में जानें 

कितनों का गुजारा देखा


एक दोस्त देखा जो 

हर हाल में हाथ थामे हैं

एक दुश्मन भी देखा जिससे 

जज्बात कुछ सहमे हैं


और अचंभा यह

कि 

दोनों का एक ही बसेरा था

बस भाव निराले मुख पर 

मगर एक ही चेहरा था 


नज़र की तो नज़र रुक गई

देखकर यह अचरज

सोच में पड गई वह 

क्या झूठ... क्या सच 


उसने गौर फरमाया लेकिन,

उलझन उसकी सुलझ न पाई 

जो दृश्य हैं फिर भी अदृश्य, 

ऐसी दुविधा वह समझ न पाई


एक सुझाव आजमाकर देखा, 

नजर ने नजरिया तराशकर देखा

तो पहेली का हल मिला कि, 

रूह ने ही दर्पण में अपना रूप देखा।


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