इक शाम सागर किनारे
इक शाम सागर किनारे
बैठकर सागर किनारे
आती-जाती लहरों को देख रहा था
कितनी मस्त, कितनी चंचल, कितनी उद्दंड
बेपरवाह होकर उनका मचलना
एक लहर आती, फिर दौड़कर
किनारे के गालों को चूमकर भाग जाती
पहली लहर भेजती फिर दूसरी लहर को
जैसे गाँव में नदी किनारे बच्चे आज भी
रेत के घरौंदे बनाकर बचपन को जीते हैं
समन्दर, लहर और किनारे
नामालूम कितनी सदियों से खेल रहे हैं ये खेल
ये सिलसिला चलता रहेगा
आने वाली सदियों तक
सिंदूरी आँचल के घूंघट में
कितनी भोली है यही की सुहानी शाम
चुपके-चुपके सूरज भी क्षितिज के उस पार
कितना आतुर, कितना व्याकुल है
समंदर की असीम गहराइयों में समा जाने को
जैसे कोई बेकरार प्रेमी
अपनी प्रेमिका की बांहों समाने के लिए
समंदर के आँचल से उभरी ठंडी-ठंडी हवाएं
गालों पर सुकून की छुअन छोड़ जाती हैं
कितना मनोहर, कितना अलौकिक
नज़ारा होता है सागर किनारे ढलती शाम का