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Sudhir Srivastava

Abstract

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Sudhir Srivastava

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बहते आँसू,बिकती साँसें

बहते आँसू,बिकती साँसें

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ये कैसा संकट है

ये कैसी महामारी है

अमीर हो या गरीब

छोटा हो या बड़ा

न कोई भेदभाव


हर ओर लाचारी,

बिखरती उम्मीदें

बेबसी के आँसू

असहाय, अपाहिज सा

हर मानव जैसे निढाल है,

चारों ओर घने काले

डरावने बादल

जैसे उम्मीदों को भी

निगल जाने को तैयार हैं।


ऊपर से एक एक साँस

चुनौती दे रही है,

इंसान की बेबसी,लाचारी

आँसुओं का तो

कोई मोल ही नहीं रहा,

इंसानी साँसों का जैसे

बाजार बन गया।


साम, दाम, दंड, भेद

बस जैसे भी हो ले लीजिए,

खुलेआम लग रही

साँसों की बोलियां,

कूवत है तो आँसू पीजिए

साँसें खरीद कर जी लीजिए।


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