नीर
नीर
शीशी सी मैं दिखती हूँ,
कभी शीशी में बन जाती हूं,
कई जीवन मुझमें समाते,
नीली दुनिया में कहलाती हूं।
हर रंग में ढल जाती हूं,
हर भार में भर जाती हूं,
अनगिनत मेरा आकार,
मेरा होता है सम्मान - सद्कार।
कई नाम से मैं कहलाती हूं,
कई जगह मैं पाई जाती हूं,
गंगा, जमुनाजी, सरस्वती है मेरा अवतार,
क्योंकि अपरम्पार है मेरा आकार।
कभी पवित्र मैं बन जाती हूं,
कभी मैली मैं हो जाती हूं,
फिर भी थोड़ा-थोड़ा करके,
हर किसी के काम आ जाती हूं।
झरने से उठ जाती हूं,
बादल में बन जाती हूं,
जगह - जगह घूम के,
फिर से पानी में समा जाती हूं।
ना ही मेरा अंत है,
ना ही है शुरुआत,
सबके मन को भाती हूं,
बनके एक मिजाज़। ।