मुसाफिर
मुसाफिर
था एक मुसाफिर,
ना जाने किस राह पे,
रेगिस्तान सि दुनिया,
और मंजिल थे तूफान में।
ना थी पानी सी हिम्मत,
ना थी पैरो पर जान,
लेकिन फिर भी चलता रहा मुसाफिर,
ले के ईश्वर का नाम।
मंजिल थी दूर,
ना पता था किसे,
चलता जा रहा वो,
मुसाफिर कहते है जिसे।
मंजिल को देखा,
तो रूह में जान आ गई,
लगता है जैसे,
रेगिस्तान में बरसात आ गई।
चलता था मुसाफिर,
मंजिल के तरफ भागे-भागे,
ना पता था उसे,
कि मंजिल है कितने आगे।
जिंदगी का यही सुरूर है,
यही है उसकी रीत,
मेहनत करोगे किसी पर,
तो मंजिल होगी नजदीक।
सोचोगे अगर कि मिल जाए मंजिल,
तुम्हें बिना किसी मेहनत के,
तो लगने लगेगी ये जिंदगी,
उस मुसाफिर की तरह,
जो चलता जाता है रेगिस्तान में ।।
