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Kulwant Singh

Drama

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Kulwant Singh

Drama

नीलकण्ठ तो मैं नहीं हूँ

नीलकण्ठ तो मैं नहीं हूँ

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नीलकण्ठ तो मैं नहीं हूँ

लेकिन विष तो कण्ठ धरा है !

कवि होने की पीड़ा सह लूँ

क्यों दुख से बेचैन धरा है ?


त्याग, शीलता, तप सेवा का

कदाचित रहा न किंचित मान ।

धन, लोलुपता, स्वार्थ, अहं का,

फैला साम्राज्य बन अभिमान ।


मानव मूल्य आहत पद तल,

आदर्श अग्नि चिता पर सज्जित ।

है सत्य उपेक्षित सिसक रहा,

अन्याय, असत्य, शिखा सुसज्जित ।


ले क्षत विक्षत मानवता को

कांधों पर अपने धरा है ।

नील कण्ठ तो मैं नहीं हूँ

लेकिन विष तो कण्ठ धरा है ।


सौंदर्य नहीं उमड़ता उर में,

विद्रूप स्वार्थ ही कर्म आधार ।

अतृप्त पिपासा धन अर्जन की,

डूबता रसातल निराधार ।


निचोड़ प्रकृति को पी रहा,

मानव मानव को लील रहा ।

है अंत कहीं इन कृत्यों का,

मानव! तूँ क्यों न संभल रहा ?


असहाय रुदन चीत्कारों को,

प्राणों में अपने धरा है ।

नीलकण्ठ तो मैं नहीं हूँ,

लेकिन विष तो कण्ठ धरा है ।


तृष्णा के निस्सीम व्योम में,

बन पिशाचर भटकता मानव ।

संताप, वेदना से ग्रसित,

हर पल दुख झेल रहा मानव ।


हर युग में हो सत्य पराजित,

शूली पर चढ़ें मसीहा क्यों ?

करतूतों से फिर हो लज्जित,

उसी मसीहा को पूजें क्यों ?


शिरोधार्य कर अटल सत्य को,

सीने में अंगार धरा है।

नीलकण्ठ तो मैं नहीं हूँ,

लेकिन विष तो कण्ठ धरा है।


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