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Kulwant Singh

Classics

2  

Kulwant Singh

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नारी

नारी

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सौंदर्य भरा अनंत अथाह,

इस सागर की कोई न थाह।

कैसे नापूँ इसकी गहनता,

अंतस बहता अनंत प्रवाह।


ज्योति प्रभा से उर आप्लावित,

प्राण सहज करुणा से द्रावित।

अंतर्मन की गहराई में,

प्रेम जड़ें पल्लव विस्तारित।


सरल हृदय संपूर्ण समर्पित,

कण- कण अंतस करती अर्पित।

रोम - रोम में भर चेतनता,

किया समर्पण, होती दर्पित।


प्रणय बोध की मधुरिम गरिमा,

लहराती कोंपल हरीतिमा।

लज्जा की बहती धाराएँ,

रग-रग में भर सृष्टि अरुणिमा।


जीने की वह राह दिखाती,

वेदन को सहना सिखलाती।

अखिल जगत की लेकर पीड़ा,

प्रीत मधुर हर घड़ी लुटाती।


प्रीतम सुख ही तृप्ति आधार,

उसी में ढ़ूँढ़े जग का प्यार।

पुलक-पुलक कर हँसती मादक,

प्रेम पाये असीम विस्तार।


आँखों में भर चंचल बचपन,

सरल सहज देती अपनापन।

राग में होकर भाव विभोर,

सर्वस्व लुटाती तन-मन-धन।


अंतस कितना ही हो भारी,

व्यथा मधुर कर देती नारी।

अपना सारा दर्द भुलाकर

हर लेती वह पीड़ा सारी।


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