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प्रकृति

प्रकृति

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सतरंगी परिधान पहन कर,

आच्छादित है मेघ गगन,

प्रकृति छटा बिखरी रुपहली,

चहक रहे द्विज हो मग्न।


कन-कन बरखा की बूंदे,

वसुधा आँचल भिगो रहीं,

किरनें छन-छन कर आतीं,

धरा चुनर है सजा रहीं।


सरसिज दल तलैया में,

झूम - झूम बल खा रहे,

किसलय कोंपल कुसुम कुंज के,

समीर सुगंधित कर रहे।


हर लता हर डाली बहकी,

मलयानिल संग ताल मिलाये,

मधुरिम कोकिल की बोली,

सरगम सरिता सुर सजाए।


कल - कल करती तरंगिणी,

उज्जवल तरल धार संवरते,

जल-कण बिंदु अंशु बिखरते,

माणिक, मोती, हीरक लगते।


मृग शावक कुलाँचे भरता,

गुंजन मधुप मंजरी भाता,

अनुपम सौंदर्य समेटे दृष्य,

लोचन बसता, हृदय लुभाता।


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