नहीं चली कलम
नहीं चली कलम
कलम हाथ से चलती रही
पर नहीं रस की धार बही
उन भीगी पलकों को देखा
सूख गई कलम की स्याही।
वे पथराई आँखें मुझसे
बार-बार यह पूछा करतीं
क्या मेरा सुहाग लौटाए
तेरे कलम की नीली स्याही।
लिखता है तू शहीद की गाथा
क्या किसी के काम ये आई
क्या किसी माँ के बेटे को
लौटा लायी ये तेरी स्याही।
अमर गाथा तो बहुत लिख चुका
दर्द भी उतारे पन्नों पर
दे पाई मासूम को फिर से
बाप का साया तेरी स्याही।
उसके इन शब्दों के आगे
टूट गया सब ताना बाना
न कलम फिर चल पाई
ना बह पाई नीली स्याही।
