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Diwa Shanker Saraswat

Romance Inspirational

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Diwa Shanker Saraswat

Romance Inspirational

नदी

नदी

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कलकल करती नदी

हिलोरे खा रही है

बढती जा रही है

प्रियतम से मिलन को

बेकरार दिखती प्रेयसी सी

दुनिया की बातों से बेपरवाह

खुद का बजूद मिटाने को

चल दी घर से दूर

बहुत दूर


राह में प्यास बुझाती चलती

खेतों को सींचती

प्रेम सिखा देता मिटना भी

नदी जी रही दुनिया के लिये

देख प्रियतम सागर को

थोड़ा सकुचा गयी

लजा कर बढ़ ली


प्रेमी ने फैला दी बाहें दोनों

मन अधीर प्रेमिका का

सिमटना चाहती प्रेम हस्तों में

कुछ क्षण सोचकर

फिर तज लाज को

सिमट गयी नदी

सागर की बांहों में

इश्क में फना हो गयी


बजूद मिटाकर खुद का

नदी खुद सागर बन गयी

प्रेम की परिणति

मिलन से बढकर

मैं लगा सोचने

मैं ही वह नदी


प्रियतम सागर को तलाशती

भटक रही हूं

मिल ही जाऊंगी प्रियतम को

फना कर दूंगी खुद को इश्क में

अभी बांट रही खुशियां

निज सामर्थ्य से


मिलूं जब सागर से

सागर फैला दे बाहें

" आओ प्रेयसी मेरी

बखेर आयी खुशियां

परीक्षा पूर्ण प्रेम की

समा जाओ मेरी बाहों में

खो जाओ मुझ में"


और मैं भी भूल निज को

समा जाऊं अनंत प्रेमी में

विशेष भाव :

कविता में मेने खुद को नदी कहा है। यहाॅ मुझसे तात्पर्य जीव या आत्मा है। जो सागर या ईश्वर से मिलन को भटक रही है। पर प्रेम में आत्मसमर्पण के लिये नदी की तरह खुशियां बांटनी होती हैं। इसलिये निज सामर्थ्य से संसार में खुशियां बांटने की कोशिश करता रहता हूं।


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