मेरे देश की धरती का रुदन
मेरे देश की धरती का रुदन
मेरे प्यारे भारत देश की धरती
अक्सर रोते दिखती है
हिचकारी देती, आंसू बहाती
अक्सर विह्वल करती है
पूछता हूँ मैं माॅ
दुख है क्या तुझे
तूने तो देखा वह दिन
जब थी जकड़ी जंजीरों में
पर अब तो है आजाद
है सच हैं कुछ जयचंद
पर गिनती है न कम भगत की
तो सच बता रहस्य रुदन का
माॅ कहती तू है नादान
देख रही नादानी तेरी
भरी हुई थी भूमि मेरी
असंख्य जंगलों से
और सच बता तू, जानता है
जंगल कहते हैं किसे
बस पढ लिया किताबों में
हर रोज मिटाता खुद को
अब तरस रही हरियाली को
विकास की चाह
जैसे सुत करता चीर हरण मात का
चाह यही अब भी मन में
मेरा सुत न रहे भूखा
पर अन्न कहाॅ उपजाऊं मैं
घरों में, फ्लैटों में, हाई वे पर
सच बतला रख हाथ दिल पर
अब तो खेतों को भी मिटा रहे
गांव बन रहे निर्जन
गंदगी से पाट रहे मुझको
ना जाने कितने प्रतिभाशाली
मुझको छोड़ गये
ना जाने कितने नोबल पर
था अधिकार मेरा
पर दूसरे चिढ़ाते मुझको
मेरा ही पुरस्कार दिखा
अकारण लड़ते सुत मेरे
धर्म, जाति, समाज,
सब दिखाते अगूंठा मुझे
हंसते मेरी लाचारी पर
कहते - कोई तेरा सुत नही
बस कर लेते दो चार दिन याद
साल में, दिखाने को
दुनिया मानतीं मैंने दिया ज्ञान जगत को
गिनती तक नहीं आती थी औरों को
मेरे सुत करते गणना चांद तारों की
आज भी गणना पायी सटीक उनकी
पर आज शर्म होती
बोलने में खुद की जबान को
मुझे नहीं दुख अपने तिरस्कार का
बस दुख तेरा कर याद
आंसू बहते अविरल आंख से
भविष्य तुम्हारा अंधकारमय
विकास नहीं देगा रोटी तुम्हें
फिर भूख से बिलखते बच्चे मेरे
बस याद कर उस दिन को
रोती रहती दिन रात ।
